सोने के व्यापार का एक संक्षिप्त इतिहास

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1200 ई.पू से 240 ई. तक का भारतीय इतिहास, प्राचीन भारत का इतिहास कहलाता है। इसके बाद के भारत को मध्यकालीन भारत कहते हैं जिसमें मुख्यतः मुस्लिम शासकों का प्रभुत्व रहा था। प्राचीन भारत के इतिहास में मुख्यत: मौर्य काल, शुंग काल, शक एवं कुषाण काल आते हैं। यूनानी इतिहासकारों के द्वारा वर्णित 'प्रेसिआई' देश का राजा इतना शक्तिशाली था कि सिकन्दर की सेनाएँ व्यास पार करके प्रेसिआई देश में नहीं घुस सकीं और सिकन्दर, जिसने 326 ई. में पंजाब पर हमला किया, पीछे लौटने के लिए विवश हो गया। . और पढ़ें
मराठा लोगों को 'महरट्टा' या 'महरट्टी' भी कहा जाता है, भारत के वे प्रमुख लोग, जो इतिहास में क्षेत्ररक्षक योद्धा और हिन्दू धर्म के समर्थक के रूप में विख्यात हैं, इनका गृहक्षेत्र, आज का मराठी भाषी क्षेत्र महाराष्ट्र राज्य है, जिसका पश्चिमी क्षेत्र समुद्र तट के किनारे मुंबई (भूतपूर्व बंबई) से गोवा तक और आंतरिक क्षेत्र पूर्व में लगभग 160 किमी. नागपुर तक फैला हुआ था। मराठा शब्द का तीन मिलते-जुलते अर्थों में उपयोग होता है- मराठी भाषी क्षेत्र में इससे एकमात्र प्रभुत्वशाली मराठा जाति या मराठों और कुंभी जाति के एक समूह का बोध होता है, महाराष्ट्र के बाहर मोटे तौर पर इससे समूची क्षेत्रीय मराठी भाषी आबादी का बोध होता है, जिसकी संख्या लगभग 6.5 करोड़ है। ऐतिहासिक रूप में यह शब्द मराठा शासक शिवाजी द्वारा 17वीं शताब्दी में स्थापित राज्य और उनके उत्तराधिकारियों द्वारा 18वीं शताब्दी में विस्तारित क्षेत्रीय राज्य के लिए प्रयुक्त होता है। . और पढ़ें
भारतीय जूट उद्योग
भारत में जूट का प्रथम कारखाना सन 1859 में स्कॉटलैंड के एक व्यापारी जार्ज ऑकलैंड ने बंगाल में श्रीरामपुर के निकट स्थापित किया और इन कारखानों की संख्या 1939 तक बढ़कर 105 हो गई। देश के विभाजन से यह उद्योग बुरी तरह प्रभावित हुआ। जूट के 112 कारखानों में से 102 कारखाने ही भारत के हिस्से में आये।
भारतीय अर्थव्यवस्था में जूट उद्योग का महत्त्वपूर्ण स्थान है। 19वीं शताब्दी तक यह उद्योग कुटी एवं लघु उद्योगों के रूप में विकसित था एवं विभाजन से पूर्व जूट उद्योग के मामले में भारत का एकाधिकार था। विशेष रूप से कच्चा जूट भारत से स्कॉटलैंड भेजा जाता था। जहाँ से टाट-बोरियाँ बनाकर फिर विश्व के विभिन्न देशों में भेजी जाती थीं, जोकि विदेशी सोने के व्यापार का एक संक्षिप्त इतिहास मुद्रा का प्रमुख स्रोत थी। यह निर्यात व्यापार जूट उद्योग का जीवन रक्त था। दुनिया के प्रायः सभी देशों में जूट निर्मित उत्पादों की माँग हमेशा बनी रहती है। अतः आज भी भारत में जूट को ‘सोने का रेशा’ कहा जाता है।
प्रथम तथा द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान युद्ध स्थलों पर खाद्य तथा आयुध सामग्री पहुँचाने के लिये जूट से निर्मित उत्पादों की माँग में हुई अप्रत्याशित वृद्धि से इस उद्योग की तेजी से प्रगति हुई। भारत में जूट का प्रथम कारखाना सन 1859 में स्कॉटलैंड के एक व्यापारी जार्ज ऑकलैंड ने बंगाल में श्रीरामपुर के निकट स्थापित किया और इन कारखानों की संख्या 1939 तक बढ़कर 105 हो गई। देश के विभाजन से यह उद्योग बुरी तरह प्रभावित हुआ। जूट के 112 कारखानों में से 102 कारखाने भारत के हिस्से में आये। भारत में जूट उद्योग के विकास के लिये यह चुनौती भरा कार्य था। साथ ही 1949 में भारतीय रुपये के अवमूल्यन के कारण भारतीय कारखानों के लिये पाकिस्तान का कच्चा जूट बहुत महँगा हो गया। पाकिस्तान ने इन बदलती हुई परिस्थितियों का भरपूर लाभ उठाया लेकिन भारत सरकार के प्रोत्साहन एवं प्रयासों के सोने के व्यापार का एक संक्षिप्त इतिहास कारण शीघ्र ही इस समस्या का निदान कर लिया गया। पश्चिम बंगाल, असम, बिहार इत्यादि राज्यों के किसानों ने इस चुनौती को स्वीकार करते हुये जूट के उत्पादन में अथक परिश्रम किया और वे अपने लक्ष्य में सफल रहे।
आज भारत में 9 लाख 70 हजार हेक्टेयर भूमि पर जूट का उत्पादन किया जा रहा है। जूट मिलों की संख्या 73 है। इनमें से 59 मिलें पश्चिम बंगाल में हैं। सार्वजनिक क्षेत्र में 5 इकाईयाँ कार्यरत हैं। प्रतिवर्ष लगभग 14 लाख टन जूट का उत्पादन किया जा रहा है। अनुकूल जलवायु के कारण 90 प्रतिशत जूट पश्चिम बंगाल, बिहार एवं असम राज्यों में उतपन्न होता है। पश्चिम बंगाल में नित्यवाही नदियों के कारण बहता हुआ साफ पानी उपलब्ध हो जाता है जिससे जूट को साफ, चमकीले एवं मजबूत रेशों में परिवर्तित किया जाता है। जूट उद्योग में 3 लाख से अधिक लोगों को रोजगार मिला हुआ है, तथा जूट उत्पादन से 40 लाख परिवार अपना जीविकोपार्जन करते हैं। वर्तमान में करघों की संख्या बढ़कर लगभग 40,500 हो गई है। विश्व के जूट उत्पाद का 40 प्रतिशत भारत एवं 50 प्रतिशत बांग्लादेश से उपलब्ध होता है।
नियोजित विकास
विभिन्न पँचवर्षीय योजनाओं में देश में जूट के उत्पादन में निरन्तर वृद्धि की प्रवृत्ति रही है। पहली योजना के अन्तिम वर्ष में भारत में जूट का उत्पादन 42 लाख गाँठे था, जो 1996-97 में बढ़कर एक करोड़ गाँठें हो गया। जूट का उत्पादन एवं जूट से निर्मित उत्पादों को तालिका-1 में दर्शाया गया हैै।
तालिका - 1
कच्चे जूट का उत्पादन (लाख सोने के व्यापार का एक संक्षिप्त इतिहास गाँठें)
जूट निर्मित माल (लाख टन)
अफ्रीकी दास व्यापार का एक संक्षिप्त इतिहास
अफ्रीकी अध्ययन विद्वानों के बीच यूरोपीय लोगों के आगमन से पहले उप-सहारा अफ्रीकी समाजों में दासता मौजूद थी या नहीं। निश्चित बात यह है कि अफ्रीकी सदियों से दासता के कई रूपों के अधीन थे, जिसमें अंतर-मुस्लिम दोनों व्यापारियों के साथ चतुर दासता और अंतर-अटलांटिक दास व्यापार के माध्यम से यूरोपीय लोग शामिल थे।
अफ्रीका में दास व्यापार के उन्मूलन के बाद भी, औपनिवेशिक शक्तियों ने मजबूर श्रमिकों का उपयोग किया - जैसे किंग लियोपोल्ड के कांगो फ्री स्टेट (जिसे बड़े पैमाने पर श्रम शिविर के रूप में संचालित किया गया था) या केप वर्दे या साओ टोमे के पुर्तगाली बागानों पर स्वतंत्रता के रूप में।
इस्लाम और अफ्रीकी दासता
कुरान दासता के लिए निम्नलिखित दृष्टिकोण निर्धारित करता है: मुक्त पुरुषों को दास नहीं किया जा सकता है, और विदेशी धर्मों के प्रति वफादार लोग संरक्षित व्यक्तियों के रूप में रह सकते हैं। हालांकि, अफ्रीका के माध्यम से इस्लामी साम्राज्य के प्रसार के सोने के व्यापार का एक संक्षिप्त इतिहास परिणामस्वरूप कानून की एक बहुत ही कठोर व्याख्या हुई, और इस्लामी साम्राज्य की सीमाओं के बाहर के लोगों को दासों का सोने के व्यापार का एक संक्षिप्त इतिहास स्वीकार्य स्रोत माना जाता था।
ट्रांस-अटलांटिक दास व्यापार की शुरुआत
जब पुर्तगाली ने पहली बार 1430 के दशक में अटलांटिक अफ्रीकी तट सोने के व्यापार का एक संक्षिप्त इतिहास पर चढ़ाई की, तो वे एक चीज़ में रुचि रखते थे: सोना।
हालांकि, 1500 तक उन्होंने पहले से ही 81,000 अफ्रीकी यूरोप, पास के अटलांटिक द्वीपों और अफ्रीका में मुस्लिम व्यापारियों के लिए व्यापार किया था।
साओ टोमे को अटलांटिक के दासों के निर्यात में एक प्रमुख बंदरगाह माना जाता है, हालांकि, यह कहानी का केवल एक हिस्सा है।
दासों में 'त्रिकोणीय व्यापार'
दो सौ वर्षों के लिए, 1440-1640, पुर्तगाल अफ्रीका से दासों के निर्यात पर एकाधिकार था। यह उल्लेखनीय है कि वे संस्थान को खत्म करने के लिए आखिरी यूरोपीय देश भी थे - हालांकि, फ्रांस की तरह, यह अभी भी ठेके मजदूरों के रूप में पूर्व दासों को काम करना जारी रखता है, जिन्हें उन्होंने स्वतंत्रता या कलाओं के रूप में बुलाया। यह अनुमान लगाया गया है कि ट्रांस-अटलांटिक गुलाम व्यापार की 4 1/2 शताब्दियों के दौरान, पुर्तगाल 4.5 मिलियन से अधिक अफ्रीकी (कुल मिलाकर लगभग 40%) के परिवहन के लिए जिम्मेदार था। अठारहवीं शताब्दी के दौरान, जब दास व्यापार ने 6 मिलियन अफ्रीकी लोगों के परिवहन के लिए जिम्मेदार ठहराया, तो ब्रिटेन सबसे खराब अपराधकर्ता था - लगभग 2.5 मिलियन के लिए सोने के व्यापार का एक संक्षिप्त इतिहास जिम्मेदार था। (एक तथ्य अक्सर उन लोगों द्वारा भुला दिया जाता है जो नियमित रूप से गुलाम व्यापार के उन्मूलन में ब्रिटेन की प्रमुख भूमिका का हवाला देते हैं।)
सोलहवीं शताब्दी के दौरान अटलांटिक से अमेरिका में अफ्रीका से कितने दास भेजे गए थे, इस बारे में जानकारी केवल अनुमान लगाया जा सकता है कि इस अवधि के लिए बहुत कम रिकॉर्ड मौजूद हैं। लेकिन सत्रहवीं शताब्दी के बाद, जहाजों के प्रकट होने जैसे तेजी से सटीक रिकॉर्ड उपलब्ध हैं।
ट्रांस-अटलांटिक गुलाम व्यापार सोने के व्यापार का एक संक्षिप्त इतिहास के दासों को शुरू में सेनेगाम्बिया और विंडवर्ड तट में सोर्स किया गया था।
लगभग 1650 व्यापार पश्चिम-मध्य अफ्रीका (कांगो और पड़ोसी अंगोला का राज्य) में चले गए।
दक्षिण अफ्रीका में दासता
यह एक लोकप्रिय गलतफहमी है कि दक्षिण अफ्रीका में दासता सुदूर पूर्व में अमेरिका और यूरोपीय उपनिवेशों की तुलना में हल्की थी। ऐसा नहीं है, और दंडित किए गए दंड बहुत कठोर हो सकते हैं। 1680 से 17 9 5 तक प्रत्येक महीने केप टाउन में एक गुलाम का औसत निष्पादित किया गया सोने के व्यापार का एक संक्षिप्त इतिहास था और अन्य दासों के प्रति प्रतिरोधी के रूप में कार्य करने के लिए क्षय करने वाली लाशों को शहर के चारों ओर फिर से लटका दिया जाएगा।
वैदिक काल या वैदिक सभ्यता
वैदिक काल प्राचीन भारतीय संस्कृति का एक काल खंड है. उस दौरान वेदों की रचना हुई थी. हड़प्पा संस्कृति के पतन के बाद भारत में एक नई सभ्यता का आविर्भाव हुआ. इस सभ्यता की जानकारी के स्रोत वेदों के आधार पर इसे वैदिक सभ्यता का नाम दिया गया.
aajtak.in
- नई दिल्ली,
- 30 जून 2014,
- (अपडेटेड 01 जुलाई 2014, 10:24 PM IST)
वैदिक काल प्राचीन भारतीय संस्कृति का एक काल खंड है. उस दौरान वेदों की रचना हुई थी. हड़प्पा संस्कृति के पतन के बाद भारत में एक नई सभ्यता का आविर्भाव हुआ. इस सभ्यता की जानकारी के स्रोत वेदों के आधार पर इसे वैदिक सभ्यता का नाम दिया गया.
(1) वैदिक काल का विभाजन दो भागों ऋग्वैदिक काल- 1500-1000 ई. पू. और उत्तर वैदिक काल- 1000-600 ई. पू. में किया गया है.
(2) आर्य सर्वप्रथम पंजाब और अफगानिस्तान में बसे थे. मैक्समूलर ने आर्यों का निवास स्थान मध्य एशिया को माना है. आर्यों द्वारा निर्मित सभ्यता ही वैदिक सभ्यता कहलाई है.
(3) आर्यों द्वारा विकसित सभ्यता ग्रामीण सभ्यता थी.
युद्ध का नेता और वर्षा का देवता
देवता और मनुष्य के बीच मध्यस्थ
पृथ्वी और सूर्य के निर्माता , समुद्र का देवता , विश्व के नियामक एवं शासक , सत्य का प्रतीक , ऋतु परिवर्तन एवं दिन-रात का कर्ता
आकाश का देवता ( सबसे प्राचीन )
प्रगति एवं उत्थान देवता
विपत्तियों को हरनेवाले देवता
विश्व के संरक्षक और पालनकर्ता
(5) आर्यों की प्रशासनिक इकाई इन पांच भागों में बंटी थी: (i) कुल (ii) ग्राम (iii) विश (iv) जन (iv) राष्ट्र.
(6) वैदिक काल में राजतंत्रात्मक प्रणाली प्रचलित थी.
(7) ग्राम के मुखिया ग्रामीणी और विश का प्रधान विशपति कहलाता था. जन के शासक को राजन कहा जाता था. राज्याधिकारियों में पुरोहित और सेनानी प्रमुख थे.
(8) शासन का प्रमुख राजा होता था. राजा वंशानुगत तो होता था लेकिन जनता उसे हटा सकती थी. वह क्षेत्र विशेष का नहीं बल्कि जन विशेष का प्रधान होता था.
(9) राजा युद्ध का नेतृत्वकर्ता था. उसे कर वसूलने का अधिकार नहीं था. जनता अपनी इच्छा से जो देती थी, राजा उसी से खर्च चलाता था.
(10) राजा का प्रशासनिक सहयोग पुरोहित और सोने के व्यापार का एक संक्षिप्त इतिहास सेनानी 12 रत्निन करते थे. चारागाह के प्रधान को वाज्रपति और लड़ाकू दलों के प्रधान को ग्रामिणी कहा जाता था.
(11) 12 रत्निन इस प्रकार थे: पुरोहित- राजा का प्रमुख परामर्शदाता, सेनानी- सेना का प्रमुख, ग्रामीण- ग्राम का सैनिक पदाधिकारी, महिषी- राजा की पत्नी, सूत- राजा का सारथी, क्षत्रि- प्रतिहार, संग्रहित- कोषाध्यक्ष, भागदुध- कर एकत्र करने वाला अधिकारी, अक्षवाप- लेखाधिकारी, गोविकृत- वन का अधिकारी, पालागल- राजा का मित्र.
(12) पुरूप, दुर्गपति और स्पर्श, जनता की गतिविधियों को देखने वाले गुप्तचर होते थे.
(13) वाजपति-गोचर भूमि का अधिकारी होता था.
(14) उग्र-अपराधियों को पकड़ने का कार्य करता था.
(15) सभा और समिति राजा को सलाह देने वाली संस्था थी.
(16) सभा श्रेष्ठ और संभ्रात लोगों की संस्था थी, जबकि समिति सामान्य जनता का प्रतिनिधित्व करती थी और विदथ सबसे प्राचीन संस्था थी. ऋग्वेद में सबसे ज्यादा विदथ का 122 बार जिक्र हुआ है.
(17) विदथ में स्त्री और पुरूष दोनों सम्मलित होते थे. नववधुओं का स्वागत, धार्मिक अनुष्ठान जैसे सामाजिक कार्य विदथ में होते थे.
(18) अथर्ववेद में सभा और समिति को प्रजापति की दो पुत्रियां कहा गया है. समिति का महत्वपूर्ण कार्य राजा का चुनाव करना था. समिति का प्रधान ईशान या पति कहलाता था.
(19) अलग-अलग क्षेत्रों के अलग-अलग विशेषज्ञ थे. होत्री- ऋग्वेद का पाठ करने वाला, उदगात्री- सामवेद की रिचाओं का गान करने वाला, अध्वर्यु- यजुर्वेद का पाठ करने वाला और रिवींध- संपूर्ण यज्ञों की देख-रेख करने वाला.
(20) युद्ध में कबीले का नेतृत्व राजा करता था, युद्ध के गविष्ठ शब्द का इस्तेमाल किया जाता था जिसका अर्थ होता है गायों की खोज.
(21) दसराज्ञ युद्ध का उल्लेख ऋग्वेद के सातवें मंडल में है, यह युद्ध रावी नदी के तट पर सुदास और दस जनों के बीच लड़ा गया था. जिसमें सुदास जीते थे.